जितिया व्रत की कथा सुनती हुई व्रती महिलाएं।
विनय झा, सरिसब
आश्विन मास की कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि पर रखा जाने वाला कठिनतम व्रत जीवित्पुत्रिका या जितिया व्रत आज नहाय-खाय के साथ शुरू हो गया।
व्रत की तिथियाँ
- 13 सितम्बर – नहाय-खाय
- 14 सितम्बर – निर्जला उपवास (मुख्य व्रत)
- 15 सितम्बर – पारण व व्रत का समापन
व्रत का महत्व
सनातन परंपरा में संतान की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और सुखमय जीवन की कामना के लिए माताएँ यह व्रत रखती हैं। इसे कठिनतम व्रतों में गिना जाता है क्योंकि इसमें तीन दिन तक विशेष नियम निभाए जाते हैं — नहाय-खाय, निर्जला उपवास और अंत में पारण।
यह पर्व मुख्यतः बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी श्रद्धा और नियम-निष्ठा से मनाया जाता है।

व्रत कथा
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, प्राचीन समय में राजा जीमूतवाहन ने एक स्त्री के पुत्र को बचाने के लिए स्वयं को गरुड़ देव के भोजन के रूप में प्रस्तुत कर दिया। उनकी यह त्यागमयी भावना देखकर गरुड़ देव प्रसन्न हुए और न केवल राजा को वैकुंठ प्राप्ति का आशीर्वाद दिया, बल्कि मृत बच्चे को भी पुनर्जीवित कर दिया। तभी से यह व्रत परंपरा शुरू हुई।
व्रत विधि और परंपरा
- व्रत की शुरुआत नहाय-खाय से होती है। इस दिन महिलाएँ मडुआ की रोटी और मछली खाती हैं।
- मान्यता है कि यह आहार व्रती को कठिन उपवास झेलने की शक्ति देता है। शाकाहारी महिलाएँ इसके स्थान पर नोनी के साग का सेवन करती हैं।
- व्रत के दिन सूर्योदय से पहले महिलाएँ स्नान कर निर्जला उपवास का संकल्प लेती हैं।
- आँगन में गोबर और मिट्टी से छोटा तालाब बनाकर उसमें कुश से बने जीमूतवाहन की प्रतिमा स्थापित की जाती है। साथ ही चिल और सियारिन की प्रतिमा बनाकर उनकी भी पूजा की जाती है।
- व्रत कथा श्रवण या पाठ के बाद अगले दिन पारण कर उपवास का समापन किया जाता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
जितिया व्रत मातृत्व की शक्ति, त्याग और संकल्प का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि यह व्रत संतान को हर प्रकार के संकट से सुरक्षित रखता है और उनके उत्तम स्वास्थ्य व दीर्घायु का आशीर्वाद देता है।

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