bihar chunav : बिहार की राजनीति में परिवारवाद का आरोप नया नहीं है. और जब राज्य में विधानसभा चुनाव को लेकर प्रचार प्रसार तेज हो गई है तो एक बार फिर वही पुराना सवाल उठ खड़ा हुआ है, क्या राजनीति अब भी जनता की आकांक्षाओं की जगह वंश की विरासत बन चुकी है? देखा जाए तो आलोचना और विरोध के बावजूद राजनीति में खानदानी उम्मीदवारों की आमद कम नहीं हुई है. मधुबनी इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनकर सामने आया है. शायद राज्य का यह जिला अकेला है, जहां 10 में से 8 विधानसभा सीट से उम्मीदवार किसी न किसी राजनीतिक घराने से आते हैं.
जिसका सीधा मतलब है कि राजद, भाजपा, जदयू, भाकपा और विकासशील इंसान पार्टी सबने वंशवाद के इस चलन को अपनी-अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार स्वीकार कर लिया है. सवाल यह नहीं कि इन परिवारों ने राजनीति में योगदान नहीं दिया है बल्कि सबसे अहम सवाल ये है कि क्या राजनीति में आम कार्यकर्ता और नए चेहरों के लिए दरवाजे अब बंद हो चुके है?
सच्चाई यह है कि लौकहा से लेकर झंझारपुर, हरलाखी से लेकर बाबूबरही तक राजनीति की कहानी विरासत के इर्द-गिर्द घूम रही है. लौकहा के राजद विधायक भारत भूषण मंडल स्व. धनिक लाल मंडल के पुत्र हैं. धनिक लाल मंडल पुर्व में बिहार विधानसभा की अध्यक्षता कर चुके हैं वो केंद्र में मंत्री और राज्यपाल के रूप में भी सेवा दे चुके हैं . भारत भूषण मंडल के सामने जदयू के सतीश साहू हैं, जो समाजवादी नेता हरि प्रसाद साहू के पुत्र हैं. दिलचस्प यह है कि धनिक लाल मंडल के परिवार की बहू शीला मंडल इस बार फुलपरास से जदयू उम्मीदवार हैं और नीतीश सरकार में मंत्री भी.
झंझारपुर में भी कहानी मिलती-जुलती है. यहां भाजपा के नीतीश मिश्रा मैदान में हैं नीतीश पूर्व मुख्यमंत्री स्व. डॉ. जगन्नाथ मिश्र के पुत्र है. बता दें कि डॉ. मिश्र छह बार विधायक और तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. तो बाबूबरही में जदयू की मीना कामत अपने पति स्व. कपिलदेव कामत की विरासत संभाल रही हैं. हरलाखी में जदयू और भाकपा दोनों के उम्मीदवार राजनीतिक घरानों से आते हैं. तो वहीं खजौली में राजद ने सीताराम यादव के पुत्र ब्रजकिशोर यादव को टिकट दिया है. मधुबनी में समीर महासेठ अपने पिता स्व. राजकुमार महासेठ की राजनीतिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. कुल मिलाकर देखें तो जिले के 10 में से केवल राजनगर और बेनीपट्टी ही दो अपवाद हैं, जहां पहली बार के उम्मीदवार मैदान में हैं. कांग्रेस ने यहां नलिनी रंजन झा जैसे नए चेहरे पर भरोसा जताया है.
इन उदाहरणों से साफ है कि बिहार की राजनीति में परिवार अब भी आम कार्यकर्ता से ज्यादा प्रभावशाली है. लोकतंत्र में सत्ता का हस्तांतरण जनता की इच्छा से होना चाहिए, लेकिन यहां विरासत का हस्तांतरण अधिक मजबूत दिखाई देता है. राजनीतिक दल जहां जनता के प्रतिनिधित्व की बात करते हैं, वहीं टिकट वितरण के वक्त वे परिवारवाद को परंपरा की तरह ढोते नज़र आते हैं. जनता का सवाल भी यही है, क्या राजनीति अब भी जनसेवा का माध्यम है या फिर वंश की सुरक्षा का तंत्र बन चुकी है? जब तक इस प्रश्न का जवाब ईमानदारी से नहीं खोजा जाएगा, तब तक बिहार जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश में भी लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा.

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